Lekhika Ranchi

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शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की रचनाएंःपथ के दावेदार-8



पथ के
अध्याय 8

जिन-जिन लोगों ने कमरे में प्रवेश किया वह सभी अच्छी तरह जाने-पहचाने लोग थे।

डॉक्टर ने कहा, “आओ।” लेकिन उनके चेहरे का भाव देखते ही भारती समझ गई, कम-से-कम आज वह इसके लिए तैयार नहीं थे।

सुमित्रा के आने के बारे में उन्हें पता था। लेकिन सभी लोग उनके पीछे-पीछे चलते हुए इस पार आ इकट्ठे हुए हैं, इसकी जानकारी उन्हें नहीं थी। किसी भी तरह की कोई आकस्मिक घटना नहीं हुई है इसलिए उनकी जानकारी के बिना ही किसी तरह का गहन परामर्श हो चुका है। इसमें संदेह नहीं है। आगंतुक लोग आकर चुपचाप फर्श पर बैठ गए। किसी के आचरण से रत्ती भर भी आश्चर्य या उत्तेजना प्रकट नहीं हुई। यह बात स्पष्ट रूप से समझ में आ गई कि डॉक्टर के संबंध में भले न हो लेकिन डॉक्टर के आने के संबंध में वह पहले ही जान गए थे। अपूर्व के मामले को लेकर दल में इस प्रकार मतभेद पैदा हो जाएगा यह आशंका भारती के मन में थी। शायद आज ही इसका निश्चित निर्णय हो जाएगा। यह सोचकर भारती के हृदय में कंपकंपी होने लगी।

सुमित्रा के चेहरे पर उदासी थी। उसने भारती से कोई बात नहीं की। उसकी ओर अच्छी तरह देखा तक नहीं। ब्रजेन्द्र ने अपनी गेरुआ पगड़ी उतारकर अपनी मोटी लाठी से दबाकर पास रख ली और अपनी विशाल शरीर को काठ की दीवार से टिकाकर आराम से बैठ गया। उसकी गोलाकार आंखों की हिंस्र दृष्टि कभी भारती और कभी डॉक्टर के चेहरे पर चक्कर काटने लगी। रामदास तलवलकर चुप था। बैरिस्टर कृष्ण अय्यर सिगरेट जलाकर पीने लगा और नवतारा सबसे दूर इस तरह जा बैठी जैसे उसका किसी के साथ कोई संबंध ही न हो। आज वह भारती को पहचान भी न सकी हो। किसी के चेहरे पर मुस्कराहट तक का नाम नहीं था।

कुछ देर बाद ब्रजेन्द्र अपनी कर्कश आवाज से सबको चकित करता हुआ बोल उठा, “आपके स्वेच्छाचार की हम लोग निंदा करते हैं डॉक्टर! अगर मैं अपूर्व को कभी पा गया तो....!”

डॉक्टर ने वाक्य पूरा करते हुए कहा, “उसकी जान ले लोगे।” यह कहकर उन्होंने सुमित्रा से पूछा, “क्या तुम सभी लोग इस आदमी की बात का समर्थन करते हो?”

सुमित्रा सिर झुकाकर बैठी रही। अन्य किसी ने भी इस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया।

कुछ पल चुप रहकर डॉक्टर बोले, “मालूम होता है कि तुम लोग समर्थन करते हो। और इस बीच इस विषय पर तुम लोगों में विचार-विमर्श भी हो चुका है।”

ब्रजेन्द्र बोला, “हां, हो चुका है। और इसका प्रतिकार होना भी हम लोग आवश्यक समझते हैं।”

डॉक्टर बोले, “मैं भी यही समझता हूं। लेकिन इससे पहले एक आवश्यक बात याद दिलाना चाहता हूं। सम्भव है अत्यंत क्रोधावेश में होने के कारण तुम लोगों को यह बात याद न रही हो। अहमद दुर्रानी हम लोगों के समूचे उत्तरी चीन का सेक्रेटरी था। उस जैसा निर्भीक और कार्य-कुशल आदमी हम लोगों के दल में कोई नहीं था। सन् 1910 ईस्वी में जापान द्वारा कोरिया राज्य को हड़प लेने के एक महीने बाद वह किसी रेलवे स्टेशन पर पकड़ा गया। उसे शंघाई में फांसी दी गई। सुमित्रा तुमने दुर्रानी को देखा था?”

सुमित्रा ने कहा, “हां।”

डॉक्टर ने कहा, “तब मैं छिता से टूटे हुए दल के पूर्ण गठन में व्यस्त था। मुझे इस बात की खबर तक नहीं मिली कि मेरा एक हाथ टूट गया है। जिस समय अदालत में उसके विरुध्द विचार का तमाशा हो रहा था, उस समय उसे बचा लेना तनिक भी कठिन नहीं था। हम लोगों के अधिकांश आदमी उन दिनों वहीं रह रहे थे। फिर भी इतनी बड़ी दुर्घटना कैसे हो गई, जानते हो? फैजाबाद के मथुरा दुबे ने बार-बार अत्यंत तुच्छ अविचार कुविचार की शिकायतें कर-करके दल के लोगों के मन को एकदम विषैला बना दिया था। दुर्रानी की मृत्यु से जैसे सभी की जान बच गई। मेरे लौट आने के बाद जब केंटन की मीटिंग में सारी बातें प्रकट हुईं तब दुर्रानी इस लोक में नहीं था। मथुरा दुबे भी टाइफाइड ज्वर से मर चुका था। प्रतिकार के लिए कुछ भी शेष नहीं रह गया था। लेकिन भविष्य के भय से उस रात की गुप्त सभा में दो अत्यंत कठोर कानून पास किए गए थे। कृष्ण अय्यर तुम तो वहां मौजूद थे, बताओ।”

कृष्ण अय्यर का चेहरा सूख गया। वह बोला, “आप जो इशारा कर रहे हैं, मैं उसे समझ नहीं पा रहा डॉक्टर।”

डॉक्टर ने रत्ती भर भी हिचके बिना कहा, “सुनो ब्रजेन्द्र, एक कानून था कि मेरे पीछे किसी काम की आलोचना नहीं हो सकती?”

ब्रजेन्द्र व्यंग्य से बोला, “आलोचना नहीं की जा सकती?”

डॉक्टर बोले, “नहीं, पीछे नहीं की जा सकती। लेकिन की जाती है, मैं यह जानता हूं। इसका कारण यह है कि उस दिन केंटन की सभा में जो लोग मौजूद थे वह दुर्रानी की मृत्यु से जितने उद्विग्न हो उठे थे मैं नहीं हुआ था। इसलिए यह काम होता चला आ रहा है और मैं भी अनदेखा करता चला आ रहा हूं। लेकिन यह भीषण अपराध है।”

ब्रजेन्द्र उपेक्षा भरे स्वर में बोला, “उसे भी कह डालिए।”

डॉक्टर बोले, “मेरे विरुध्द विद्रोह की भावना पैदा करना अत्यंत भयंकर अपराध है। दुर्रानी की मृत्यु के बाद मुझे सावधान हो जाना चाहिए था।”

ब्रजेन्द्र कठोर हो उठा, “सावधन होने की जरूरत दूसरों के लिए भी वैसी ही हो सकती है। यह जरूरत आपके लिए सर्वाधिकार के रूप में नहीं है।” यह कहकर उसने सबकी ओर देखा। लेकिन सब मौन बैठे रहे। किसी ने कोई उत्तर नहीं दिया।

काफी देर बाद डॉक्टर ने धीरे-धीरे कहा, “इसकी सजा है-भयानक दंड। सोचा था, जाने से पहले और कुछ करूंगा। लेकिन ब्रजेन्द्र, तुम्हें सब्र नहीं हुआ। दूसरों के प्राण लेने के लिए तुम हमेशा तैयार रहते हो, लेकिन अपने ऊपर आ पड़ने पर कैसा लगता है, जानते हो?”

ब्रजेन्द्र का मुंह काला पड़ गया। जल्दी से स्वयं को संभाल कर बड़े घमंड से बोला, “मैं एनार्किस्ट हूं। रिव्योल्यूशनरी हूं। प्राण मेरे लिए कुछ नहीं हैं। ले भी सकता हूं और दे भी सकता हूं।”

डॉक्टर ने शांत स्वर में कहा, “तब तो आज रात को देने ही पड़ेंगे, लेकिन बेल्ट निकाल पाने का समय नहीं मिलेगा। ब्रजेन्द्र मेरी आंख है। तुमको मैं पहचानता हूं।” यह कहकर उन्होंने फौरन पिस्तौल वाला हाथ उठा लिया। भारती ने व्याकुल होकर उनके उस हाथ को दबाए रखने की चेष्टा की लेकिन दूसरे हाथ से हटाते हुए बोले, “छि:।”

पलभर में कमरे में जैसे वज्रपात हो गया।

सुमित्रा के होंठ कांपने लगे। बोली, “अपने ही भीतर यह सब क्या हो रहा है, बताइए तो।”

तलवलकर अब तक चुप था। उसने धीरे से पूछा, “आपके दल के सभी नियम मुझे मालूम नहीं हैं आपसे मतभेद होने का दंड क्या मृत्यु है? अपूर्व बाबू बच गए हैं। इससे मुझे प्रसन्नता ही हुई है। लेकिन इसमें अन्याय कम नहीं हुआ है यह सत्य कहने के लिए मैं बाधय हूं।”

कृष्ण अय्यर ने सिर हिलाकर सम्मति दे दी। ब्रजेन्द्र की आवाज में अब उपहासपूर्ण श्रध्दा नहीं थी। अन्य लोगों की सहानुभूति से शक्ति पाकर बोला, “एक आदमी के प्राण जाने अगर जरूरी हैं तो फिर मेरे ही चले जाएं। मैं तैयार हूं।”

सुमित्रा ने कहा, “ट्रेटर के बदले अगर जाने-पहचाने कामरेड के खून की ही जरूरत है तो मैं भी दे सकती हूं डॉक्टर।”

डॉक्टर चुपचाप बैठे रहे। सुमित्रा की बात का उत्तर नहीं दिया।

दो मिनट के बाद मन-ही-मन मुस्कराकर बोले, “यह सब बातें बहुत ही पुराने समय की हैं। उस समय तुम लोग थे ही कहां? इस जाने-पहचाने कामरेड को मैं ही उसी समय से जानता हूं। जाने दो इस बात को। टोकियो के एक होटल में एक दिन सान्याल सेन ने कहा था, “निराशा सहने की शक्ति जिसमें जितनी कम हो उसे चाहिए कि वह रास्ते से उतनी ही दूर हटकर चले। इसलिए मैं सह लूंगा। लेकिन ब्रजेन्द्र मैंने तुम्हें झूठमूठ भय नहीं दिखाया है। मुझे दूसरी जगह जाना पड़ रहा है। डिसिप्लिन टूट जाने से मेरा काम नहीं चलेगा। अगर सुमित्रा तुम्हारे दल में शामिल हो रही है तो-आई विश यू गुडलक। लेकिन तुम मेरा रास्ता छोड़ दो। सुखाया में एक बार अटेम्पड कर चुके हैं। परसों फिर किया, लेकिन इसके बाद नहीं....।”

सुमित्रा ने उद्वेग से चौंककर पूछा, “इन सब बातों का अर्थ क्या अटेम्पड करना होता है।”

डॉक्टर ने इस प्रश्न को अपने कानों तक नहीं पहुंचने दिया। कृष्ण अय्यर ने सिर नीचा कर लिया, लेकिन उत्तर नहीं दिया। डॉक्टर ने जेब से घड़ी निकालकर देखी। फिर भारती का हाथ पकड़कर बोले, “चलो, तुमको डेरे पर पहुंचाकर मैं चला जाऊं। उठो।”

भारती सपने में डूबी-सी बैठी थी। इशारा पाते ही चुपचाप उठ खड़ी हुई। उसे अपने आगे करके डॉक्टर कमरे से बाहर निकल गए। दरवाजे पर से सबको सम्बोधित करके बोले, “गुडनाइट।”

इस विदाई-शिष्टाचार का किसी ने उत्तर नहीं दिया। सभी अभिभूत से स्तब्ध बैठे रहें।

भारती के नीचे उतर जाने के बाद जब डॉक्टर ऊपर की ओर नजर रखकर धीरे-धीरे उतर रहे थे तभी सहसा शशि दरवाजे में से मुंह निकालकर बोला, “लेकिन मुझे तो आपसे बहुत जरूरी काम है डॉक्टर।”यह कहकर नीचे उतर उनके पास आ खड़ा हुआ और सांस रोककर बोला, “मेरी गणना तो मनुष्यों में की ही नहीं जाती डॉक्टर। आपके किसी काम आने की शक्ति मुझ में नहीं है लेकिन आपका ऋण जीवन पर्यन्त नहीं भूलूंगा।”

डॉक्टर ने स्नेहपूर्वक उसका हाथ खींचते हुए कहा, “कौन कहता है कि तुम मनुष्य नहीं हो? तुम कवि हो, गुणी हो, अनेक मनुष्यों से बड़े हो।”

“आप कहीं भी क्यों न रहें, मेरे पास जो कुछ है सब आपका है, इस बात को मत भूल जाइएगा।”

भारती ने उत्सुक होकर पूछा, “क्या बात है भैया?”

डॉक्टर ने हंसते हुए कहा, “दुर्दिन में तो इन्हें चिंता नहीं थी लेकिन अचानक अच्छे दिन आते ही उन्हें चिंता हो गई है कि कहीं ऐसा न हो कि इन्हें कृतज्ञता का ऋण याद ही न रहे। इसलिए कह रहे हैं कि जो कुछ इनके पास है सब मेरा है।”

भारती बोली, “ऐसी बात है शशि बाबू?”

शशि कुछ नहीं बोला।

डॉक्टर ने कहा, “याद रहेगा शशि, याद रहेगा। यह वस्तु संसार में इतनी सुलभ नहीं है कि कोई भूल जाए।”

शशि ने कहा, “आप कब जाइएगा?”

डॉक्टर बोले, “तुम तो उम्र में मुझसे छोटे हो। इसलिए आशीर्वाद देकर जा रहा हूं कि तुम सुखी रहो।”

शशि ने कहा, “क्या अगले शनिवार तक नहीं ठहर सकते?”

भारती बोली, “शनिवार को इनका विवाह होगा।”

डॉक्टर कुछ नहीं बोले। सामने ही कीचड़ में पड़ी टेढ़ी नाव पर यत्नपूर्वक भारती को चढ़ाकर स्वयं भी चढ़ गए।

शशि ने कहा, “शनिवार तक आपको रुकना होगा। जीवन में अनेक भीखें दी हैं। यह भी दीजिए। भारती, आपको भी उस दिन आना होगा।”

भारती चुप रही। डॉक्टर ने कहा, “यह नहीं आएगी शशि। अगर रुका रहा तो आऊंगा और तुम लोगों को आशीर्वाद दे जाऊंगा। मैं वचन देता हूं। अगर न आऊं तो समझ लेना कि सव्यसाची के लिए आना असम्भव था। लेकिन जहां भी रहूं प्रार्थना करूंगा कि तुम्हारा शेष जीवन सुख से बीते।” यह कहकर नाव चला दी।

भारती बोली, “आज अकेली होती तो इतना रोती कि नदी का जल बढ़ जाता। भैया, भविष्य में सभी को सुखी होने का अधिकार है। नहीं है केवल तुम को। शशि बाबू इतना अशोभनीय काम करने जा रहे हैं उन्हें भी जी खोलकर आशीर्वाद दे आए। लेकिन इस संसार में तुम्हें आशीर्वाद देने वाला कोई नहीं है। तुम गुरुजन हो, चाहे जो भी हो। लेकिन आज तुम्हें मैं आशीर्वाद दूंगी कि तुम्हारा भविष्य सुखमय हो।”

डॉक्टर हंसकर बोले, “छोटों का आशीर्वाद नहीं फलता। उसका फल उलटा होता है।”

भारती बोली, “झूठ है। मैं छोटी नहीं हूं। एक दूसरी दृष्टि से तुमसे बड़ी हूं। जाने से पहले तुम सुमित्रा जीजी के साथ हमेशा के लिए संबंध तोड़ देना चाहते हो। यह मैं नहीं होने दूंगी। तुम कहोगे कि मैं सुमित्रा को प्यार नहीं करता। लेकिन तुम पुरुषों के प्यार का मूल्य ही कितना है भैया? जो आज है, वह कल नहीं रहता। अपूर्व बाबू भी तो मुझे प्यार नहीं कर सके। लेकिन मैं कर सकी हूं। मेरा कर सकना ही सब कुछ है। ततैये में मधु इकट्ठा करने की शक्ति नहीं तो इसके लिए किससे झगड़ा करने जाऊं। लेकिन आज मैं तुमसे कहे देती हूं भैया कि इस संसार को नचाने वाले प्रभु कोई भी हों, नारी हृदय के प्रेम का मूल्य चुकाने के लिए उन्हें अपूर्व बाबू को लेकर मेरे हाथों सौंप देना ही पड़ेगा।” कुछ उत्तर पाने की आशा में भारती पलभर स्तब्ध रहकर बोली, “भैया, तुम मन-ही-मन हंस रहे हो?”

“कहां? नहीं तो।”

“जरूर। नहीं तो तुमने उत्तर क्यों नहीं दिया?”

डॉक्टर हंस पड़े। बोले, “उत्तर देने के लिए कुछ था ही नहीं भारती, तुम्हारे संसार को नचाने वाले प्रभु को भी अगर इस जबर्दस्ती को मानकर चलना पड़ता तो तुम्हारी सुमित्रा जीजी की क्या हालत होती, जानती हो?-ब्रजेन्द्र के हाथों में स्वयं को हर प्रकार से सौंप देने पर ही जान बचती।”

भारती चकित नहीं हुई। आज की घटना के बाद से यही संदेह उसके मन में बढ़ता जा रहा था। उसने पूछा, 'ब्रजेन्द्र क्या उनको तुमसे भी अधिक प्यार करते हैं?”

डॉक्टर बोले, “बताना कुछ कठिन है। यह अगर शुध्द आकर्षण ही हो, मानव समाज में इसकी तुलना नहीं मिल सकती। लाज नहीं, शर्म नहीं, सम्भ्रम नहीं। हित-अहित का ज्ञान लुप्त। पशुवत् उन्मत्त आवेग, जो आंखों से नहीं दीखता, वह उसके मन का परिचय पा ही नहीं सकता। भारती, अगर तुम्हारे भैया के पास यह दोनों हाथ जैसी चीज न होती तो सुमित्रा के लिए आत्महत्या के अतिरिक्त दूसरा कोई मार्ग ही नहीं था। संसार को नचाने वाले तुम्हारे प्रभु भी इतने दिनों इन लोगों की इज्जत किए बिना नहीं रह सके हैं।” यह कहकर वह भारती के झुके हुए सिर पर अपने दोनों हाथ रखकर धीरे-धीरे थपकियां देने लगे।

भारती बोली, “भैया, इतना जानते हुए भी तुम इसी परिस्थिति में सुमित्रा को छोड़कर चले जाना चाहते हो? तुम इतने निष्ठुर हो सकते हो, मैं सोच भी नहीं सकती।”

डॉक्टर बोले, “हां, सच ही मैंने यही चाहा था। इस बीच अगर पुलिस उसे जेल न भेज देगी तो लौट आने पर किसी दिन मुझे यह काम पूरा करना पड़ेगा।”

भारती के हृदय को गहरा आघात लगा। डॉक्टर समझ गए लेकिन कुछ भी न कहकर उस पार जाने के लिए दोनों पतवारें खींचकर नाव खेने लगे।

बहुत देर बाद भारती ने पूछा, “अच्छा भैया, यदि मैं तुम्हारी सुमित्रा होती तो क्या तुम मुझे भी इसी तरह छोड़कर चले जाते?”

डॉक्टर हंसने लगे। बोले, “लेकिन तुम तो सुमित्रा नहीं हो। तुम भारती हो। इसलिए तुम्हें छोड़कर नहीं जाऊंगा। काम के लिए नियुक्त करके जाऊंगा।”

भारती ने व्यग्र होकर कहा, “मुझे बचाओ भैया, तुम लोगों की खून-खराबी में अब मैं शामिल नहीं हूं। तुम्हारी गुप्त समिति का काम अब मुझसे नहीं होगा।”

डॉक्टर ने कहा, “इसका अर्थ तो यही है कि तुम भी इन लोगों की तरह मुझे छोड़कर जाना चाहती हो।”

यह सुनकर भारती क्षोभ से व्याकुल हो उठी। बोली, “इतनी बड़ी अन्यायपूर्ण बात तुम मुझसे कह सकते हो भैया। तुम जो इच्छा हो कह सकते हो। लेकिन मैं अपनी ही इच्छा से तुम्हें छोड़कर चली गई, यह बात याद आने पर एक दिन भी जीवित रह सकती हूं, ऐसा तुम्हारा खयाल है? मैं तुम्हारा ही काम करती रहूंगी जब तक कि तुम अपनी इच्छा से मुझे छुट्टी न दोगे।” थोड़ी देर रुककर बोली, “लेकिन मैं जानती हूं कि मनुष्य की हत्या करते हुए घूमते रहना ही तुम्हारा वास्तविक काम नहीं है। तुम्हारा वास्तविक काम है मनुष्य को मनुष्य की तरह जीवित रखना। मैं तुम्हारे इसी काम में लगी रहूंगी और मैं यही सोचकर तुम लोगों की बीच आई थी।”

डॉक्टर ने पूछा, “यह मेरा कौन-सा काम है?”

भारती बोली, “पथ के दावेदारों को गुप्त समिति के रूप में परिणत करने की जरूरत नहीं है। कारखाने के मजदूर-मिस्त्रियों की हालत मैं अपनी आंखों से देख आई हूं। उनके पास कुशिक्षा और उनकी जानवरों जैसी हालत-अगर समूचे जीवन में उनका रत्ती भर भी प्रतिकार कर सकूं तो इससे बढ़कर मेरे जीवन की सार्थकता और क्या हो सकती है? सच बताओ भैया, यह क्या तुम्हारा काम नहीं है।”

डॉक्टर बोले, “यह काम तुम्हारा नहीं है भारती। तुम्हारे लिए दूसरा काम है। यह काम सुमित्रा का है। मैंने इस काम का सारा भार उसी पर छोड़ रखा है।”

भारती चुप रही।

डॉक्टर ने उसी तरह शांत और मृदु स्वर में कहा, “तुमसे कह देना ही उचित है भारती। कुछ थोड़े से कुली-मजदूरों की भलाई के लिए ही मैंने 'पथ के दावेदार' की स्थापना नहीं की है। इसका लक्ष्य बहुत बड़ा है। उस लक्ष्य के लिए, हो सकता है किसी दिन इन्हीं लोगों को भेड़-बकरियों की तरह बलि चढ़ा देना पड़े-तुम उसमें मत रहना बहिन। तुम इसे न कर सकोगी।”

भारती चौंककर बोली, “यह तुम क्या कह रहे हो भैया? क्या मनुष्यों की बलि चढ़ाओगे?”

डॉक्टर ने कहा, “मनुष्य हैं कहां? जानवर ही तो हैं।”

भारती बोली, “मनुष्य के संबंध में तुम मजाक में भी ऐसी बात मुंह से मत निकालना, कहे देती हूं। झूठ-मूठ डराने की कोशिश मत करो।”

डॉक्टर बोले, “नहीं भारती, झूठ-मूठ नहीं। सचमुच डराने की कोशिश कर रहा हूं जिससे मेरे चले जाने के बाद तुम कुली-मजदूरों की भलाई के चक्कर में न पड़ो। इस तरीके से इनकी भलाई नहीं की जा सकती। इनकी भलाई की जा सकती है केवल क्रांति के द्वारा। इसी मार्ग पर चलने के लिए मैंने पथ के दावेदार की रचना की है। क्रांति शांति नहीं है। उसे हमेशा हिंसा के बीच से ही कदम रखकर चलना पड़ता है। यही उसका वरदान है और यही अभिशाप! एक बार यूरोप की ओर ध्यान से देखो। हंगरी में ऐसा ही हुआ है। कुली-मजदूरों के खून से उस दिन नगर के सभी राजपथ रक्तिम हो उठे थे। जापान में तो अभी उसी दिन की बात है-उस देश में भी मजदूरों के दु:ख का इतिहास बिंदु बराबर भी इससे भिन्न नहीं है। मनुष्य के चलने का मार्ग बिना उपद्रव नहीं बनता भारती।”

भारती सिहरकर बोली, “यह मैं नहीं जानती। लेकिन उन सब भयानक उपद्रवों को क्या तुम इस देश में भी खींच लाओगे? कारखानों के रास्ते में क्या मजदूरों के रक्त की नदी बहा देना चाहते हो?”

डॉक्टर ने सहज भाव से कहा, “अवश्य चाहता हूं महामानव के मुक्ति सागर में मानवीय रक्त धारा तरंगित होकर दौड़ती जाएगी, यही मेरा स्वप्न है। इतने दिनों का पर्वत जैसा विशाल पाप धुलेगा किस चीज से? और इस धुलाई के काम में अगर तुम्हारे भैया के दो बूंद रक्त की भी आवश्यकता पड़ेगी तो मैं हंसकर बहाऊंगा।”

भारती बोले, “इतना तो मैं आपको पहचानती हूं भैया। लेकिन क्या देश में अशांति फैला देने के लिए ही तुम जाल बिछाकर बैठे हो? इससे बड़ा आदर्श क्या आपके पास नहीं है?”

डॉक्टर बोले, “आज तक तो मिला नहीं बहिन, बहुत घूम चुका, पढ़ चुका और विचार कर चुका। लेकिन भारती, अशांति उत्पन्न करने का अर्थ अकल्याण उत्पन्न करना नहीं है। शांति, शांति सुनते-सुनते कान बहरे हो गए हैं। इस असत्य का प्रचार किन लोगों ने किया, जानती हो? दूसरों की शांति का हरण करके जो प्रासादों में बैठे हैं, वह ही इसके प्रवर्तक हैं। वंचित, पीड़ित नर-नारियों को लगातार यह मंत्र सुनाकर उन लोगों को ऐसा बना दिया है कि वे अशांति के नाम से ही चौंक उठते हैं और सोचने लगते हैं कि शायद यह पाप है, अमंगल है। बंधी हुई गाय खड़ी-खड़ी मर ही जाती है, लेकिन पुरानी रस्सी को तोड़कर मालिक की शांति भंग नहीं करती, इसीलिए तो आज दरिद्रों के चलने का मार्ग एकदम बंद हो गया है। फिर भी उन्हीं लोगों की अट्टालिकाओं तथा प्रासादों को तोड़ने के काम में हम लोग भी उन्हीं लोगों के साथ मिलकर, अशांति कहकर रोने लगेंगे तो रास्ता कहां मिलेगा? यह नहीं हो सकता भारती। यह संस्था कितनी प्राचीन, कितनी पवित्र, कितनी ही सनातन हो, मनुष्य से बड़ी नहीं है। आज उन सब को हमें तोड़ चलना होगा।”

भारती सांस रोककर बोली, “इसके बाद?”

डॉक्टर बोले, “इसके बाद-वह फिर मजदूरों के दल में जाकर उन्हीं हत्यारों के द्वार पर हाथ फैलाते हैं, उन्हें उसकी दया भी मिलती है।”

“इसके बाद?”

“इसके बाद फिर एक दिन वह लोग दल-बध्द होकर पुराने अत्याचारों के प्रतिकार की आशा से हड़ताल कर बैठते हैं। तब फिर वही पुरानी कहानी दोहराई जाने लगती है।”

पलभर को भारती का मन फिर निराशा से भर गया। धीरे-धीरे बोली, “तब ऐसी हड़ताल से क्या लाभ है भैया?”

डॉक्टर की आंखों की दृष्टि अंधेरे में चमक उठी। बोले, “लाभ? यही तो सबसे बड़ा लाभ है भारती। यही तो तुम्हारी क्रांति का राजपथ है। वस्त्रहीन, अन्नहीन, ज्ञानहीन दरिद्रों की पराजय ही सत्य हुई। उनके समूचे हृदय में जो विष भरकर उफन उठता है, जगत में वह शक्ति क्या सत्य नहीं है? वही तो मेरा मूलधन है। कहीं भी, किसी भी देश में केवल क्रांति के लिए ही क्रांति नहीं की जा सकती भारती। उसके लिए कोई-न-कोई आधार अवश्य चाहिए। यही तो मेरा आधार है। जो मूर्ख इस बात को नहीं जानता केवल मजदूरी की कमी-बेशी के लिए हड़ताल कराना चाहता है, वह उन लोगों का भी सर्वनाश करता है और देश का भी।”

भारती बोली, “नाव शायद पीछे चली गई भैया।”

डॉक्टर बोले, “मेरी नजर में है बहिन। कहां जाना है, भूला नही हूं।”

भारती बोली, “मुझे इसमें से अलग क्यों कर देना चाहते हो? इतनी देर के बाद यह बात मेरी समझ में आई है। मैं बहुत कमजोर हूं-शायद उनकी तरह ही। आज भी तुम्हारा सारा भरोसा सुमित्रा जीजी पर है। लेकिन यह बात मैं किसी भी तरह नहीं मानूंगी कि इसके अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं, मनुष्य की सारी खोज समाप्त हो चुकी है। एक के मंगल के लिए दूसरे का अमंगल करना ही होगा। इसे मैं किसी भी तरह नहीं मान सकती। तुम्हारे कहने पर भी नहीं।”

“यह मैं जानता हूं बहिन।”

“तुम्हारा काम छोड़कर मैं किसके सहारे रहूंगी? अगर लौटकर न आए तो कैसे जीऊंगी?”

“यह भी मैं जानता हूं।”

“जानते तो तुम सब कुछ हो।.....तब?”

कुछ देर सन्नाटा रहा। फिर भारती बोली, “क्रांति क्या है? इसकी इतनी आवश्यकता क्यों है?- तुम्हारे मुंह से जब सुनती हूं तो मेरा अन्त:करण रोने लगता है। मानव के दु:ख का इतिहास तुमने न जाने कितना देखा है। नहीं तो इस तरह तुमको किसने पागल बनाया है? अच्छा, क्या तुम मुझे अपने साथ नहीं ले जा सकते भैया?”

“तुम क्या पागल हो गई हो भारती?”

“पागल? ऐसा ही होगा। मालूम होता है मैं तुम्हारे काम में बाधक हूं। इसीलिए देश के किसी भी अच्छे काम में काम नहीं आ सकती।”

डॉक्टर बोले, “देश में अच्छे काम करने के असंख्य मार्ग हैं भारती-लेकिन अवसर स्वयं ही खोजना पड़ता है।”

भारती बोली, “मैं यह नहीं कर सकती। तुम ही तैयार करके दे जाओ।”

पलभर मौन रहकर डॉक्टर बोले। उनका हंसता हुआ चेहरा सहसा गम्भीर हो उठा था जिसे अंधेरे में भारती देख नहीं पाई; “देश में छोटी-बड़ी अनेक ऐसी संस्थाएं हैं जो देश के लिए अनेक अच्छे काम करती हैं। पीड़ितों की सेवा, रोगियों के लिए दवा जुटाना, उन्हें सांत्वना देना, बाढ़-पीड़ितों की सहायता-यह ही तुम्हें मार्ग दिखा देंगी भारती। लेकिन मैं तो क्रांतिकारी हूं। मुझमें मोह नहीं, दया नहीं, स्नेह नहीं, पाप-पुण्य मेरे लिए मिथ्या परिहास हैं। यह सब अच्छे काम लड़कों के खेल सरीखे हैं। भारत की स्वाधीनता ही मेरा एकमात्र लक्ष्य है, मेरा एकमात्र साधन है। मेरे लिए यही अच्छा है और यही बुरा भी है। इसके अतिरिक्त मेरे जीवन में मेरे लिए कहीं भी कुछ नहीं है। अब मुझे मत खींचो भारती।”


आज शशि और नवतारा का विवाह है। शशि की सविनय प्रार्थना थी कि रात को डॉक्टर भारती को साथ लेकर आ जाएं और उन लोगों को आशीर्वाद दे जाएं। भारती काले रेपर से अपने शरीर को ढंके चुपचाप कदम बढ़ाती हुई, घाट के किनारे जा खड़ी हुई। डॉक्टर नाव में उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे।

नाव में चढ़कर भारती बोली, “क्या-क्या बातें सोचती हुई आ रही थी, कोई ठिकाना नहीं है। मैं जानती थी कि मुझे बताए बिना तुम कभी नहीं जाओगे। फिर भी भय दूर नहीं होता। अभी दिन ही कितने बीते हैं लेकिन ऐसा लगता था जैसे कितने ही युगों से तुम्हें नहीं देखा है। भैया, मैं तुम्हारे साथ चीनियों के देश में चलूंगी। यह मैं बताए देती हूं।”

डॉक्टर ने हंसते हुए कहा, “मैं भी बताए देता हूं कि तुम इस तरह का कोई काम करने की कोशिश कभी न करना।” यह कहकर उन्होंने भाटे के बहाव में नाव छोड़ दी। बोले, 'इतनी दूर तक आराम से चले जाएंगे। लेकिन नदी में पहुंचकर उलटे बहाव को ठेलकर पहुंचने में बहुत देर हो जाएगी।”

भारती बोली, “हो जाए तो क्या? कौन बड़े शुभ कार्य में भाग लेने जा रहे हो कि समय बीत जाने से हानि होगी। मेरी तो जाने की इच्छा ही नहीं थी। केवल तुम जा रहे हो, इस लिए चल रही हूं। कैसा गंदा काम हो रहा है, बताओ तो।”

पल भर मौन रहकर डॉक्टर ने कहा, “शशि का नवतारा के साथ विवाह बहुत से लोगों के संस्कार में खटक रहा है। शायद यह देश के कानून के भी विरुध्द है, लेकिन यह दोष शशि का तो है नहीं। कानून और उसे बनाने के लिए जो लोग उत्तरदायी हैं उन्हीं का दोष है। मुझे केवल इतना ही क्षोभ है कि शशि ने किसी अन्य स्त्री को प्यार नहीं किया।”

भारती हंसकर बोली, “मान लेती हूं कि शशि बाबू किसी दूसरी स्त्री को प्यार करते, लेकिन वह उन्हें क्यों प्यार करती? उन जैसे आदमी को जान-बूझकर कोई स्त्री प्यार कर सकती है, इस बात की तो मैं कल्पना भी नहीं कर सकती। अच्छा, तुम्हीं बताओ, क्या कोई कर सकती है?”

डॉक्टर बोले, “उसे प्यार करना कठिन तो है ही। इसीलिए तो उसे आशीर्वाद देने के लिए मैं रुक गया। मन में विचार आया कि यदि सच्ची शुभकामना में कोई शक्ति हो तो शशि को उसका फल मिले।”

उनकी आवाज में अचानक गम्भीरता आ जाने के कारण भारती ने बहुत देर चुप रहने के बाद पूछा। “शशि बाबू को प्यार करते हो भैया?”

“हां।”

“क्यों?”

“तुम्हें ही क्यों इतना प्यार करता हूं-क्या इसका कारण बता सकता हूं? शायद इसी तरह हो सकता है।”

भारती ने आदर से पूछा, “अच्छा भैया, तुम्हारे लिए क्या हम दोनों एक ही समान हैं? फिर दूसरे ही पल हंसती-हुई बोली, “फिर भी इतने दिनों में अपना मूल्य बहुत पा गई। चलो, मैं भी तुम्हारे साथ चलकर प्रसन्नता पूर्वक उन्हें आशीर्वाद ....नहीं, नहीं प्रणाम कर आऊं।”

डॉक्टर भी हंस पड़े, बोले, “चलो।”

भारती बोली, “भैया, जैसे समुद्र की थाह नहीं है, उसी तरह तुम्हारी भी कोई थाह नहीं है। स्नेह करो, प्यार कहो, तुम्हारे ऊपर निर्भर होकर कुछ भी दृढ़ता से खड़ा नहीं रह सकता, सभी न जाने कहां समा जाते हैं।”

“पहले जो समुद्र की थाह है। इसलिए इस संबंध में तुम्हारी यह उपमा गलत है।”

भारती बोली, “इस विषय में शायद मैं तुमको सौ बार कह चुकी हूं कि तुम्हारे अतिरिक्त इस संसार में मेरा और कोई नहीं है। तुम्हारे चले जाने पर मैं कहां खड़ी रहूंगी? लेकिन यह बात तुम्हारे कानों तक पहुंचती ही नहीं है। और पहुंचेगी किस तरह भैया, तुम्हारे पास हृदय तो है नहीं। मैं ठीक-ठाक जानती हूं कि एक बार आंख से ओझल होते ही तुम मुझे जरूर भूल जाओगे।”

डॉक्टर बोले, “नहीं, तुम्हारी याद हमेशा बनी रहेगी।”

भारती बोली, “क्या भरोसा लेकर मैं रहूंगी भैया?”

“सौभाग्यवती स्त्रियां जिस भरोसे को लेकर रहती हैं। पति, बाल-बच्चे, घर-द्वार...!”

भारती क्रुध्द होकर बोली, “मैंने अपूर्व बाबू को मुक्त हृदय से प्यार किया था-इस सत्य को तुमसे छिपाया नहीं। उनको पा जाती तो मेरा जीवन धन्य हो जाता। लेकिन इसी कारण तुम मेरा अपमान करते रहते हो, क्यों?”

“अपमान? मैंने तो अपमान नहीं किया भारती।”

आंसू भर जाने के कारण भारती रुंधे गले से बोली, “कैसे नहीं किया? तुम जानते हो कि इस काम में कितनी बाधाएं हैं। तुम जानते हो कि वह मुझे कभी ग्रहण नहीं कर सकते। फिर भी तुम यह बातें कहते हो।”

डॉक्टर ने मुस्कराकर कहा, “स्त्रियों में यही तो सबसे बड़ा दोष है। वह स्वयं एक दिन जो बात कह देती हैं अगर कोई दूसरा वही बात दूसरे दिन कह दे तो वह झटपट मारने दौड़ती हैं। उस दिन सुमित्रा की बात पर तुमने कहा था कि वह किसी दिन किसी को खींचकर पैरों तले ला गिरा देगी। और आज उसी बात को मैंने दोहरा दिया तो रोने लगीं।”

“नहीं, यह बातें मुझसे मत कहो।”

“अच्छा नहीं कहूंगा, लेकिन इस बार की यात्रा से यदि बचकर लौट आया तो यह बात मेरे पैरों के पास गले में आंचल बांधकर तुम्हें स्वीकार करनी पड़ेगी-भैया, मुझसे करोड़ों अपराध हुए हैं। अवश्य ही तुम हाथ देखना जानते हो। नहीं तो मेरे सौभाग्य के बारे में इतनी सच्ची बात कैसे कह सकते थे।”

भारती ने इसका उत्तर नहीं दिया।

कुछ देर चुप रहकर डॉक्टर बोले, तो लगा जैसे उनके कंठ स्वर में एक अद्भुत स्वर आ मिला हो। उन्होंने कहा, “उस रात जब तुम सुमित्रा की बात कह रही थीं भारती, तब मैं उसका उत्तर नहीं दे पाया था। मैं इस पथ का यात्री नहीं हूं। फिर भी तुम्हारे मुंह से सुमित्रा की कहानी सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए थे। संसार में घूमकर अनेक चीजों के बारे में जानकारी प्राप्त की है लेकिन केवल नर-नारी के प्रेम तत्व के संबंध में कुछ भी नहीं जान पाया हूं। बहिन, असम्भव नामक शब्द इस संसार में शायद इन्हीं लोगों के कोश में नहीं लिखा है।”

भारती बोली, “तुम्हारी बात सच हो भैया। वह शब्द तुम लोगों के कोश से भी मिट जाए। सुमित्रा जीजी का भाग्य एक दिन प्रसन्न हो।” थोड़ी देर ठहरकर उसने कहा, “मैंने बहुत सोच-विचार कर लिया है लेकिन उसमें अब मेरा अपना आनंद नहीं है। अब मैं उसकी आशा भी नहीं करती। अपूर्व बाबू को मैं सचमुच ही प्यार करती हूं। भले हों या बुरे हों-मैं अब उनको भूल नहीं सकूंगी, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि उनकी पत्नी न बन पाने पर, उनकी घर-गृहस्थी न कर पाने पर मेरा जीवन व्यर्थ हो जाएगा। मेरे लिए शोक की यह बात नहीं है भैया। मैं सच कह रही हूं कि मुझे शांत मन से आशीर्वाद देकर रास्ता दिखाते जाओ। तुम्हारी तरह मैं भी दूसरों के काम में ही अपने इस जीवन को सार्थक कर डालूंगी। भैया, अपनी इस निराश्रित बहिन को अपना साथी बना लो।”

डॉक्टर चुपचाप नाव चलाने लगे। इतने विनय भरे अनुरोध का उन्होंने उत्तर नहीं दिया।

अंधेरे के कारण भारती उनका चेहरा नहीं देख पाई, लेकिन उनके मौन से उसे आशा बंधी। इस बार उसकी आवाज में स्नेह पूर्ण निवेदन की विविड़ वेदना उभरकर ऊपर तक चली आई। बोली, “ले चलोगे भैया, अपने साथ? तुम्हारे अतिरिक्त इस अंधकार में बूंद भर भी प्रकाश मुझे कहीं नहीं दिखाई पड़ता।”

डॉक्टर बोले, “असम्भव है भारती। तुम्हारी बातों ने आज मुझे जोआ की याद दिला दी। तुम्हारी तरह ही उसका अमूल्य जीवन भी अकारण नष्ट हो गया था। भारत की स्वाधीनता के अतिरिक्त मेरा और कोई भी लक्ष्य नहीं है। जीवन में इससे बढ़कर और कोई कामना नहीं है-ऐसी भूल मुझसे कभी नहीं हुई है। स्वाधीनता का अंत नहीं है। धर्म, शांति, काव्य, आनंद, यह सब और भी है। इनके चरम विकास के लिए ही तो स्वाधीनता चाहिए। नहीं तो उसका मूल्य क्या है? इसके लिए मैं तुम्हारी हत्या नहीं कर सकता बहिन। तुम्हारे अंदर जो हृदय-स्नेह, प्रेम, करुणा और माधुर्य से लबालब भर उठा है कि वह मेरे प्रयोजन को पार करके बहुत ऊंचाई तक चला गया है। हाथ बढ़ाने पर भी मैं वहां तक नहीं पहुंच सकता।”

भारती का सर्वांग पुलकित होकर रोमांचित हो उठा। सव्यसाची के गम्भीर हृदय की एक अनुरूप मूर्ति मानो सहसा उसने देख ली। मुक्ति और आनंद से विगलित होकर बोली, “मैं भी तो यही सोचती रही हूं भैया कि तुम्हारे लिए इस संसार का कौन-सा विषय अज्ञात है और अगर ऐसी बात है तो तुम इस षडयंत्र में लुप्त होकर क्यों पड़े हो? मानव का चरम कल्याण तो इनके द्वारा कभी हो ही नहीं सकता।”

डॉक्टर बोले, “ठीक, यही बात है। लेकिन चरम कल्याण का भार हम विधाता के हाथों में ही छोड़कर क्षुद्र मानव के लिए जो सामान्य कल्याण है उसी को करने की चेष्टा करते हैं। अपने देश में स्वाधीन भाव से बात करने, स्वाधीन भाव से चलने-फिरने के अधिकार का ही हमारा दावा है। हम इससे अधिक और कुछ नहीं चाहते भारती।”

भारती बोली, “यह तो सभी चाहते हैं भैया। लेकिन इसके लिए नर-हत्या का षडयंत्र क्यों? इसकी आवश्यकता ही क्या है?” -लेकिन यह बात कहकर भारती लज्जित हो उठी। फिर एक पल रुककर बोली, “मुझे क्षमा करो भैया? मैंने क्रोधावेश में यह झूठी बात कह डाली। मुझे छोड़कर तुम चले जाओगे, मैं यह सोच भी नहीं सकती।”

“यह मैं जानता हूं।”

इसके बाद बहुत देर तक फिर कोई बातचीत नहीं हुई।

उस समय कुछ दिनों स्वदेशी आंदोलन समूचे भारत में फैल चुका था। देश भर के नेतागण देश-उध्दार के उद्देश्य के कानून बनाकर जो जलते हुए भाषण देते हुए घूम रहे थे उन्हीं के %E

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